आज लोगों का नेताओं और सरकारों से विश्वास उठने लगा है। कुछ की दृष्टि में मतदान केवल एक मानसिक सन्तुष्टि है कि “मैंने अपने राज्य के मुख्यमंत्री का चुनाव किया।” किन्तु वास्तविकता तो यह है कि सभी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। लोग जान चुके हैं कि कोई भी सरकार सत्ता में क्यों न आये, उनका उद्देश्य एक ही है – शोषण। आखिर काठ की हाँडी बार-बार नहीं चढ़ सकती!
वैदिक दृष्टिकोण से राज्य चलाने के लिए लोकतन्त्र का चुनाव ही गलत है। मान लीजिए उड़ने के लिए तैयार एक हवाई जहाज में सूचना प्रसारित होती है कि “पायलट अचानक बीमार पड़ गया और अभी यात्रियों में मतदान होगा कि कौन पायलट बनेगा।” केवल कुछ ‘बुद्धिमान‘ लोग ही ऐसे मतदान में भाग लेंगे। शेष हवाई जहाज से उतरने का चुनाव करेंगे।
एक छोटे परिवार को चलाना जब इतना कठिन है तो पूरे राज्य अथवा देश को चलाना कितना कठिन होगा? किन्तु हमें लगता है कि हमारे राज्य या देश को कोई भी चला सकता है, चाहे वह क्रिकेट खिलाड़ी हो, फिल्म अभिनेता, अथवा प्रसिद्ध डाकू। क्या आप उपरोक्त हवाई जहाज में किसी ऐसे पायलट का चुनाव करेंगे जो विश्वप्रसिद्ध गायक तो है किन्तु पायलट नहीं?
और तो और मतदान केन्द्रों पर धाँधली इतनी स्पष्ट होने लगी है बुद्धिमान वर्ग इसकी प्रमाणिकता पर प्रश्न लगाने लगा है।
समाधान?
कुछ नहीं।
आदर्श दृष्टि से नेता और जनता का सम्बन्ध पिता-पुत्र का होता है, जिसमें एक-दूसरे के प्रति अपने कर्तव्यों को समझकर अपने अधिकारों को प्राप्त किया जाता है। आज प्रत्येक व्यक्ति अपने अधिकारों की दुहाई तो देता है किन्तु अपने कर्तव्यों पर ध्यान नहीं देता। परिणाम होता है सम्बन्धों में खटास, कलह, और तू-तू, मैं-मैं।
इसीलिए वैदिक समय में शक्तिशाली, ज्ञानी, आत्मसंयमी व्यक्ति को ही राजा चुना जाता था, सामान्य जनता द्वारा नहीं अपितु समाज के ऐसे बुद्धिमान वर्ग द्वारा, जो सौ प्रतिशत निःस्वार्थी भावना से पूरी तरह से समाज के कल्याण के प्रति समर्पित होते। राजा प्रजा के कल्याणार्थ अपने प्राण न्यौछावर करने से भी नहीं हिचकिचाता और प्रजा तन, मन, धन से उसकी सेवा करती।
श्रीमद्भागवतम् में महाराज शिबि की कथा आती है जिन्होंने एक सामान्य कबूतर की रक्षा के लिए स्वयं अपने शरीर का माँस काट-काटकर एक चील को दिया। एक साधारण से प्राणी की रक्षा के लिए इतनी वचनबद्धता कहाँ देखने को मिलेगी आज?
यह हमारा दुर्भाग्य है कि अभी ऐसे शासक हमारे बीच नहीं हैं। फिर भी इस संसार में कोई भी सत्ता में क्यों न हो, भगवान् की सत्ता सर्वोपरि है। उनके शासन के सामने किसी की सत्ता नहीं चलती, सबको झुकना पड़ता है।
इस संसार में रहते हुए हमें दो जीवन जीने पड़ सकते हैं, एक सामाजिक और दूसरा आध्यात्मिक। और दोनो में ही मतदान की आवश्यकता पर बल दिया जाता है। किन्तु आध्यात्मिक मतदान न करना वास्तव में अपराध है, आत्मा के लिए। मनुष्य जीवन में प्राप्त इस मतदान के अवसर का लाभ उठाकर हमें भगवान् को अपना मत देकर उन्हें अपना सच्चा नेता स्वीकारना चाहिए। और जैसाकि भगवद्गीता के अन्त में संजय कहते हैं –
यत्र योगेश्वः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्धठव नीतिर्मतिर्मम।।
“जहाँ भी योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं, और जहाँ भी सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन हैं निश्चित ही वहाँ सभी ऐश्वर्य, विजय, असाधारण शक्ति और नीति है। ऐसा मेरा मत है।”
एक बार श्रीकृष्ण को अपना नेता चुनने पर फिर हमें इस संसार के कीट-पतंगों से समान नेताओं के ऊपर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं रहेगी। हम ऐसे व्यक्ति को अपने जीवन की बागडोर दे देंगे जो इस संसार की किसी भी वस्तु से अधिक हमसे सच्चा प्रेम करता है, हमारा हितैषी है, हमारा मित्र है, सुहृद है, बन्धु है, और हमारे पालन एवं संरक्षण के लिए कटिबद्ध हैं।
This is an institution established under the guidence of His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada, Founder and Acharya of International Society for Krishna Consciousness (ISKCON), spreading the teachings of Bhagavad Gita
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