मटके के छेद

विश्वभर के नेताओं द्वारा शांति के अथक प्रयासों के बाद भी चारों ओर अशांति और अराजकता छायी है। पिछले कुछ वर्षों से प्रायः प्रतिदिन विश्व  के किसी – न – किसी भाग में आतंकी हमले हो रहे हैं और ये निरन्तर बढ़ते जा रहे हैं। हमारे इतने प्रयास करने पर भी समाज में शांति क्यों स्थापित नहीं हो रही है?

स्कूली दिनों में हमारे अध्ययन को सुधारने के लिए एक अध्यापक हमें एक दृष्टान्त दिया करते थे। वे कहते कि एक मिट्टी के मटके में कुछ छेद थे जिनसे पानी बहकर निकल जाता था। घर की स्त्री ने अत्यन्त सावधनीपूर्वक सारे छेद बन्द कर दिये, परन्तु फिर भी पानी रिसना बन्द नहीं हुआ। इसका क्या अर्थ है?

सरल – सा उत्तर है कि मटके में अभी भी कहीं – न – कहीं छेद है। अध्यापक महोदय के कहने का आशय होता कि यदि परीक्षा में हमारे अच्छे अंक नहीं आते तो इसका अर्थ है कि हमारे अध्ययन में कहीं – न – कहीं छेद है।

शांति के प्रयासों के बाद भी अशांति का वातावरण दर्शाता है कि हमारी सामाजिक में कहीं – न – कहीं एक छेद है। वह छेद है भगवद्विहीनता का। चाहे हमारा व्यक्तिगत जीवन हो या पारिवारिक, सामाजिक अथवा वैश्विक, जब तक हम इस छेद को बन्द नहीं करते हमारा सुख एवं शांति बाहर निकलकर बहती जायेगी। यह छेद बन्द होगा स्वयं को भगवान् से जोड़ने से।

वह किस प्रकार?

स्वार्थ के कारण प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को संसार का केन्द्र मानने लगा है। अर्थात् वह संसार की प्रत्येक वस्तु एवं व्यक्ति को उपयोग अपने सुख के लिए करना चाहता है। साधन कम हैं और इच्छाएँ अनन्त। परिणाम है संघर्ष। श्रील प्रभुपाद एक सरल उदाहरण दिया करते थे। यदि सरोवर में अलग – अलग स्थान पर छोटे पत्थर फेंके जायें तो उनसे निकलने वाली तंरगों में टकराव होगा। क्यों? क्योंकि उनके केन्द्र अलग – अलग हैं। परन्तु यदि एक ही स्थान पर पत्थर फेंके जायें तो टकराव नहीं होगा।

वैदिक समाज में प्रत्येक व्यक्ति एवं प्रत्येक कार्य का केन्द्र भगवान् तथा शास्त्रों की वाणी होता था। यदि परस्पर व्यवहार में कभी विरोधाभास, मतभेद, या टकराव उत्पन्न होते तो उसे भगवान् एवं शास्त्रों के सन्दर्भ में देखते हुए सुलझा लिया जाता। आज स्थिति विपरीत है। सबने अपने स्वार्थ को केन्द्र में रखकर अपने – अपने नियमों, सिद्धान्तों, दर्शन तथा शास्त्रों का निर्माण कर लिया है। प्रत्येक व्यक्ति अपने परिवेश का अधिकाधिक दोहन करके भोग करना चाहता है। और इस खींचातानी का परिणाम है संघर्ष।

श्रील प्रभुपाद श्रीमद्भागवतम् की अपनी भूमिका में इसका वर्णन करते हैं –

आधुनिक मनुष्य समाज अब पहले के समान पिछड़ा हुआ नहीं रहा। समाज ने भौतिक सुख – सुविधाओं, शिक्षा तथा आर्थिक विकास के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है। परन्तु इस सामाजिक ढाँचे में कहीं – न – कहीं एक छेद है। फलस्वरूप हम आये दिन छोटी – छोटी बातों पर बड़े – बड़े झगड़े और संघर्ष देखते हैं। आज समाज को उस एक केन्द्रिय उद्देष्य की आवश्यकता है जो मानवता को शांति, मैत्री तथा समृद्धि के सूत्र में बाँध सके। और यह आवश्यकता श्रीमद्भागवतम् पूरी करेगी। यह पुस्तक अपनी संस्कृति से सम्पूर्ण मानव समाज को पुनः आध्यात्मीकृत कर सकती है।

समाचार पत्र उठाइये और आपको समाज में व्याप्त अशांति, संदेह, हिंसा, तनाव आदि का साक्षात्कार हो जायेगा।

विश्व  भर में पिछले वर्ष हुए आतंकी हमलों का ब्यौरा इस प्रकार है – नवम्बर में 52 तथा दिसम्बर में अब तक 21 हमले हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त प्रायः प्रत्येक समाचार नकारात्मक भावनाओं से उत्पन्न होता है और वातावरण को अधिकाधिक नकारात्मक बना जाता है। विश्व स्तरीय नेता एकजुट होकर आतंकवाद, पर्यावरण, विश्वशांति आदि मुद्दों को सुलझाने का प्रयास कर रहे हैं। ये प्रयास निःसन्देह सराहनीय है। परन्तु परिणाम?

एक समय एक व्यक्ति सड़क पर कुछ खोज रहा था। दूसरे व्यक्ति ने पूछा कि भाई कुछ खो गया है क्या? उसने कहा हाँ मेरी अगूँठी खो गयी है। जब उससे पूछा गया कि कहाँ खोयी थी तो उसने उत्तर दिया कि पिछली गली में खोयी थी परन्तु वहाँ अंधेरा होने के कारण वह इस गली में खोज रहा है। मूर्ख नहीं जानता कि जीवनभर खोजने पर भी वह अपनी अँगूठी नहीं खोज पायेगा।

हमारे समाज रूपी मटके में आध्यामिक – विहीनता के छेद हैं और उन छेदों से हमारा सुख, शांति, सौहार्द, निष्ठा, प्रेम आदि बहा जा रहा है। हमें चाहिए कि श्रीमद्भागवतम् जैसे ग्रन्थों से दृष्टि प्राप्त करके सावधानीपूर्वक उन छेदों को बन्द कर दें। अन्यथा एक दिन उस खोखले मटके में केवल सूखी गरम हवा रह जायेगी।

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